न्याय की ओर एक कदम: दिल्ली दंगों के दौरान हुई पुलिस बर्बरता पर कोर्ट का बड़ा फैसला
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स्वदेश प्रेम /दिल्ली
नई दिल्ली (उत्तर पूर्वी दिल्ली, ब्यूरो चीफ – शोएब इदरीसी)
देश की राजधानी दिल्ली में फरवरी 2020 में हुए सांप्रदायिक दंगों ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया था। इन दंगों के दौरान कई निर्दोष लोगों ने अपनी जान गंवाई, सैकड़ों घायल हुए, और हजारों लोगों की संपत्तियों को नुकसान पहुंचा। इसी दौरान, एक हृदयविदारक घटना में पांच मुस्लिम युवकों के साथ पुलिस द्वारा कथित रूप से अमानवीय व्यवहार किया गया। इस मामले में अब कड़कड़डूमा कोर्ट ने एक अहम फैसला सुनाते हुए 1 एसएचओ और 4 पुलिसकर्मियों के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने का आदेश दिया है।
कोर्ट ने माना “हेट क्राइम”
यह मामला तब प्रकाश में आया जब दंगों के दौरान मजदूरी कर लौट रहे पांच मुस्लिम युवकों को पुलिस ने रोककर बेरहमी से पीटा। उन पर राष्ट्रगान गाने और “जय श्री राम” का नारा लगाने का दबाव डाला गया। इस पिटाई के कारण 23 वर्षीय फैजान की मौत हो गई थी। अन्य पीड़ितों में शामिल वसीम ने न्याय के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाया। अदालत ने इस घटना को “हेट क्राइम” करार दिया, जो कानून व्यवस्था की रखवाली करने वाली पुलिस पर एक गंभीर सवाल खड़ा करता है।
5 साल बाद न्याय की किरण
पांच वर्षों की लंबी कानूनी लड़ाई के बाद, कड़कड़डूमा कोर्ट ने इस मामले में दोषी पुलिसकर्मियों के खिलाफ भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 295A (धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने का प्रयास), 323 (जानबूझकर चोट पहुंचाना), 342 (गलत तरीके से बंधक बनाना) और 506 (आपराधिक धमकी) के तहत एफआईआर दर्ज करने का आदेश दिया है। यह फैसला उन लोगों के लिए एक महत्वपूर्ण संकेत है, जो न्याय की उम्मीद खो चुके थे।
पुलिस पर गंभीर आरोप और सीबीआई जांच
फैजान की मौत के बाद इस मामले की जांच केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (CBI) को सौंपी गई थी। हालांकि, अब तक इस मामले में कोई ठोस कार्रवाई नहीं की गई थी। पुलिस पर आरोप है कि उसने न केवल निर्दोष युवकों को बेरहमी से पीटा, बल्कि उन्हें सांप्रदायिक नारे लगाने के लिए मजबूर किया। यह न केवल मानवाधिकारों का उल्लंघन है, बल्कि संविधान द्वारा दिए गए मूल अधिकारों का खुला हनन भी है।
सांप्रदायिक सद्भाव और कानून का राज आवश्यक
भारत एक लोकतांत्रिक देश है, जहां संविधान सभी नागरिकों को समान अधिकार देता है। लेकिन जब कानून की रक्षा करने वाली पुलिस ही किसी विशेष समुदाय के खिलाफ हिंसा में लिप्त पाई जाती है, तो यह देश की न्याय प्रणाली पर सवाल उठाता है। कोर्ट का यह फैसला न केवल न्याय की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है, बल्कि एक चेतावनी भी है कि कानून से ऊपर कोई नहीं है, चाहे वह कोई भी हो।
निष्कर्ष: न्याय की उम्मीद बरकरार
इस आदेश से पीड़ित परिवारों को थोड़ी राहत जरूर मिली है, लेकिन अभी भी उन्हें इंसाफ मिलने का लंबा रास्ता तय करना होगा। यह मामला न्याय प्रणाली और मानवाधिकारों की रक्षा के लिए एक परीक्षण भी है। अगर कानून का शासन स्थापित रखना है, तो ऐसे मामलों में त्वरित न्याय और कठोर कार्रवाई आवश्यक है।
भारत की संवैधानिक व्यवस्था और लोकतांत्रिक मूल्यों को बनाए रखने के लिए जरूरी है कि सभी नागरिकों को समान अधिकार मिले और कानून का पालन सभी के लिए समान रूप से हो। यह फैसला इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम साबित हो सकता है।